बेजुबानों को बचाने और थाली को जहरमुक्त बनाने के लिए डा. दलाल ने जलाई थी कीट ज्ञान क्रांति की मशाल
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डॉ सुरेन्द्र दलाल |
जींद। हरियाणा प्रदेश के जींद जिले के जुलाना हलके के गांव नंदगढ़ में श्री गणेशीराम तथा श्रीमति धनपति देवी के घर अप्रैल 1962 में एक महान विभूति ने जन्म लिया। यह महान विभूति थे कीट साक्षरता के अग्रदूतडा. सुरेंद्र दलाल। डा. सुरेंद्र दलाल के पिता श्री गणेशीराम फौज में सैनिक थे और माता धनपति देवी एक सुशील गृहिणी थी। डा. सुरेंद्र दलाल एक किसान परिवार से सम्बंध रखते थे। डा. सुरेंद्र दलाल की प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई और नौवीं कक्षा तक की पढ़ाई गांव के सरकारी स्कूल से पूरी करने के बाद डा. सुरेंद्र दलाल ने सोनीपत के हिंदू हाई स्कूल से दसवीं की परीक्षा पास की। 3 भाइयों और 2 बहनों में सबसे बड़े होने के कारण छोटे भाइयों और बहनों की पढ़ाई की जिम्मेदारी भी इन्ही के कंधों पर थी। छोटे भाई विजय दलाल, जगत सिंह तथा राजसिंह को पढ़ाने की जिम्मेदारी इन्होंने बखूबी निभाई। घर की अर्थिक स्थित कमजोर होने के कारण छोटे भाइयों को पढ़ाने तथा घर की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए डा. सुरेंद्र दलाल ने पढ़ाई बीच में ही छोड़कर हिसार में नौकरी शुरू कर दी। इस दौरान 1979 में डा. सुरेंद्र दलाल की शादी हो गई और श्रीमति कुसुम जैसी सुशील और सर्वगुण संपन्न जीवन संगिनी के साथ उन्होंने अपने जीवन का आगे का सफर शुरू किया। श्रीमति कुसुम ने भी हर तरह की परिस्थितियों में डा. सुरेंद्र दलाल का तहदिल से साथ दिया। श्रीमति कुसुम से इन्हें 2 पुत्रियां प्रीतिका, रीतिका तथा एक पुत्ररत्न अक्षत की प्राप्ति हुई। श्रीमति कुसुम की शिक्षा विभाग में नौकरी लग जाने के बाद डा. सुरेंद्र दलाल ने दोबारा से अपना पढ़ाई का सफर शुरू करते हुए अगस्त 1979 में हिसार के कृषि विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. (आनर्स) कृषि में दाखिला लिया। 1983 में बी.एस.सी. की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1986 में एम.एस.सी. तथा 1991 में इसी विश्वविद्यालय से उन्होंने
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पाठशाला में किसानो को कीटों की जानकारी देते डॉ दलाल |
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दूरदर्शन की टीम के साथ बातचीत करते डॉ दलाल |
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कपास की फसल में कीटों का अवलोकन करती महिलाएं |
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पाठशाला में किसानो को कीटों की जानकारी देते डॉ दलाल |
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कपास की फसल में कीटों का अवलोकन करते किसान |
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महिला पाठशाला में महिलाओं को कीटों के बारे जानकारी देते डॉ दलाल |
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किसान पाठशाला में खाप पर्तिनिधियों को स्मृति चिहन देते किसान |
पौध प्रजनन (Plant Breeding) में पी.एच.डी. की डिग्री हासिल की। इन दोनों ही डिग्रियों के दौरान उन्हें भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) से फैलोशिप भी मिला। हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. की पढ़ाई के दौरान ही वे प्रगतिशील छात्र संगठन एस.एफ.आई. के सम्पर्क में आए और वामपंथी विचारधारा से जुड़े। डा. सुरेंद्र दलाल ने एस.एफ.आई. के साधारण सदस्य से सफर शुरू करते हुए आगे बढ़कर राज्य अध्यक्ष तक की जिम्मेदारी भी निभाई। डा. सुरेंद्र दलाल का सम्पूर्ण जीवन बड़ा ही संघर्ष भरा रहा और इन्होंने बड़ी से बड़ी कठिनाई का भी डटकर मुकाबला किया। डा. सुरेंद्र दलाल ईमानदार, कठोर परिश्रमी, दृढ़ संकल्प और दूरदर्शी तथा एक अच्छे वक्ता भी थे। वक्तव्य में उनका कोई शानी नहीं था। डा. दलाल प्रत्येक विषय पर गंभीरता से विचार करते हुए उसकी गहराई तक जाते थे। किसानों तथा गरीब वर्ग के प्रति डा. दलाल का विशेष लगाव रहा। इसलिए पढ़ाई के दौरान छात्र आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाने के साथ-साथ मजदूरों, किसानों और कर्मचारियों के संघर्षों में भी उनका अहम योगदान रहा। पी.एच.डी. की डिग्री लेने के बाद उन्होंने 1992 में हरियाणा एग्रीकल्चर यूनिवॢसटी की ब्रांच कोल (कुरुक्षेत्र) में साइंटिस्ट के तौर पर नौकरी की शुरूआत की। लगभग एक वर्ष तक यहां पौध प्रजनन पर कार्य करने के बाद डा. सुरेंद्र दलाल ने इस नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। इसके बाद डा. दलाल ने 1994 में कृषि विभाग में ए.डी.ओ. के पद पर ज्वाइन किया और यहां से ऑन डेपुटेशन साक्षरता अभियान में जुड़कर उन्होंने अनपढ़ महिला और पुरुषों को अक्षर ज्ञान का रसपान करवाकर साक्षर करने का काम किया। डा. सुरेंद्र दलाल के पास सामाजिक सांस्कृतिक और परम्परा को लोगों की चेतना में विकसित करने तथा उन्हें संगठित करने की बेजोड़ कला थी। जींद में अन्य साथियों के साथ मिलकर साक्षरता सत्संग और सांग की रचना करना तथा उनका मंचन करना इसका जीता जागता एक उदाहरण है। वे मुश्किल से मुश्किल विषय को बहुत जल्द लोकभाषा में परिवॢतत कर उसे लोगों के बीच प्रस्तुत करने में भी माहिर थे। वे बड़े ही स्पष्टवादी और हाजिर जवाबी भी थे। लोक इतिहास में उनकी गहरी रुचि थी। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लिजवाना और आसपास के गांवों के लोगों की भूमिका पर भी उन्होंने शोधपूर्ण कार्य किया। भूरा और निघाइया नम्बरदारों के नेतृत्व में इलाके की जनता द्वारा अंग्रेजों, जींद, पटियाला और नाभा के राजाओं के विरुद्ध किए गए शानदार संघर्ष को उन्होंने नाटक, रागिनी और किस्सों के रूप में जनता के सामने प्रस्तुत किया। उनकी रचनाओं से यह स्पष्ट होता है कि वे एक महान इतिहासकार भी थे। साक्षरता अभियान के माध्यम से लोगों को अक्षर ज्ञान का रसपान करवाने के बाद भी समाजसेवा के प्रति उनकी जिज्ञासा कम होने की बजाए बढ़ती ही चली गई। साक्षरता अभियान के बाद वापिस कृषि क्षेत्र की जिम्मेदारी मिलने पर समाज के प्रति उनका लगाव ओर भी ज्यादा बढ़ता चला गया और उन्होंने अपना पूरा जीवन समाज को समर्पित कर दिया। फसलों में अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से थाली में बढ़ते जहर तथा वर्ष 2002 में बी.टी. कपास में फैले अमेरीकन सूंडी के प्रकोप ने उनके जीवन को एक नई दिशा दी। इसके बाद उन्होंने थाली को जहरमुक्त बनाने के लिए कीटों पर अपना शोध शुरू कर दिया। कीटों पर किए गए शोध से वर्ष 2007 में उन्होंने कपास की फसल में अमेरीकन सूंडी का तोड़ ढूंढ़कर पहली सफलता हासिल की और इस कामयाबी में उनके मार्गदर्शक बने रुपगढ़ गांव के किसान। एक तरह से यह उनका बडप्पन ही था कि उन्होंने इसी गांव के कीटाचार्य राजेश नामक किसान को अपना कीट ज्ञान का गुरु मानकर अपने शोधों को गति दी। इसके बाद वर्ष 2008 में जींद जिले के निडाना गांव के खेतों से उन्होंने कीट ज्ञान क्रांति की मशाल जलाकर हरियाणा प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश के मानचित्र पर निडाना गांव तथा जींद जिले को एक नई पहचान दिलाई। अपने आप में यह भी एक अनोखी बात है कि पौध प्रजनन पर पी.एच.डी. करने के बावजूद भी उन्होंने कीटों पर शोध कर एक नया अध्याय लिखा। अपनी 6-7 वर्षों की अथक मेहनत के बूते ही उन्होंने देश के किसानों को एक नई दिशा देने का काम किया। कीटों पर शोध करते हुए उन्होंने कपास की फसल में पाए जाने वाले 206 कीटों की पहचान की। इनमें 43 किस्म के शाकाहारी कीट तथा 163 किस्म के मांसाहारी कीट हैं। इन कीटों में से भी चबाकर खाने वाले, रस चूसने वाले, फूल-फल, पत्तियां खाने वाले कीटों की अलग-अलग श्रेणियां बांट दी। यह उनके शोधों का ही परिणाम है कि उन्होंने पिछले 40 वर्षों से किसानों और कीटों के बीच चली आ रही इस लड़ाई को समाप्त करने तथा किसानों को लड़ाई के इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने के लिए कीट ज्ञान रूपी एक अचूक हथियार दिया। इतना ही नहीं कीट ज्ञान की क्रांति को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने पुरुष किसानों के साथ-साथ महिला किसानों को भी अपनी इस मुहिम में शामिल कर एक अनूठी मिशाल पेश की। डा. दलाल ने जिलेभर के दर्जनभर से ज्यादा गांवों के किसानों को जय कीट ज्ञान के एक सूत्र में पिरो दिया। डा. दलाल के कुशल मार्गदर्शन की बदौलत ही आज जींद जिले के लगभग दर्जनभर से भी ज्यादा गांवों के पुरुष तथा महिला किसान कीट ज्ञान की डिग्री हासिल कर पाए। अपने प्रयोगों की बदोलत ही डा. दलाल तथा यहां के किसानों ने कपास जैसी कमजोर फसल में भी बिना पेस्टीसाइटों का इस्तेमाल किए अच्छा उत्पादन लेकर दुनिया को यह दिखा दिया कि जब कपास जैसी कमजोर फसल बिना पेस्टीसाइड पैदा
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रेडियो पत्रकार सम्पूर्ण सिंह डॉ सुरेन्द्र दलाल से बातचीत करते हुए |
की जा सकती है तो अन्य फसलों में भी बिना पेस्टीसाइड का इस्तेमाल किए अच्छा उत्पादन लिया जा सकता। इसके बाद डा. सुरेंद्र दलाल ने इस मुहिम को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए खाप पंचायतों को इस मुहिम से जोडऩे का काम किया। डा. दलाल से मार्गदर्शन लेकर यहां के कीट मित्र किसानों ने वर्ष 2012 में खाप पंचायतों की अदालत में एक अर्जी भेजकर पिछले 40 वर्षों से किसानों और कीटों के बीच चली आ रही इस अंतहीन लड़ाई को समाप्त करवा बेवजह मारे जा रहे बेजुबानों को बचाने की गुहार लगाई। बड़े-बड़े विवाद सुलझाने के लिए मशहूर रही खाप पंचायतों ने किसानों की इस अर्जी को स्वीकार करते हुए उन्हें सही न्याय करने के लिए आश्वस्त किया। इस विवाद में खाप पंचायतों द्वारा हस्तक्षेप किए जाने के बाद आधुनिकता के इस दौर में फतवे जारी करने तथा तालिबानी फरमान सुनाने के नाम से बदनाम हो चुकी खाप पंचायतों का एक सामाजिक चेहरा फिर से लोगों के सामने आया। खाप पंचायतों के प्रतिनिधियों ने कीटाचार्य किसानों के निमंत्रण को स्वीकार कर इस अंतहीन लड़ाई को खत्म करने के लिए लगातार 18 सप्ताह तक किसान खेत पाठशालाओं में पहुंचकर कीट ज्ञान अर्जित किया। इन 18 सप्ताह के दौरान प्रदेशभर की लगभग 90 खापों के प्रतिनिधि कीट अवलोकन के लिए इन पाठशालाओं में पहुंचे। डा. सुरेंद्र दलाल ने अपनी समग्र दृष्टि का प्रयोग करते हुए खाप पंचायतों के माध्यम से किसानों में कीट ज्ञान का खूब प्रचार किया। इसी का परिणाम था कि खेती के क्षेत्र में समृद्ध हो चुके पंजाब जैसे प्रदेश के किसान भी यहां के किसानों से कीट ज्ञान के गुर सीखने के लिए समय-समय पर यहां पहुंचने लगे। इतना ही नहीं डा. दलाल ने टैक्रालाजी के इस युग को देखते हुए ब्लाग तथा इंटरनेट के माध्यम से विदेशों में भी कीटनाशक रहित खेती की अलख जगाई। डा. दलाल ने प्रभात कीट पाठशाला, निडाना गांव का गौरा, अपना खेत अपनी पाठशाला, महिला खेत पाठशाला, कृषि चौपाल, नौगामा ब्लाग तथा यू-ट्यूब पर भी कीटों की क्रियाकलापों की वीडियों डालकर विदेशियों का ध्यान इस तरफ अकर्षित किया। अपने स्वास्थ्य की परवाह नहीं करते हुए कीट साक्षरता के इस अग्रदूत ने कीट ज्ञान की इस क्रांति को एक विकल्प के रूप में किसानों के बीच स्थापित कर दिया। दुर्भाग्यवश फरवरी 2013 में डा. सुरेंद्र दलाल स्वाइन फ्लू की चपेट में आ गए। डा. दलाल को उपचार के लिए हिसार के जिंदल अस्पताल में भर्ती करवाया गया। यहां पर वैल्टीनेटर की सुविधा मुहैया नहीं हो पाने के कारण चिकित्सकों ने डा. दलाल को हिसार के ही गीतांजलि अस्पताल में रैफर कर दिया लेकिन यहां पर वह सघन कोमा में चले गए। इसके बाद डा. दलाल को दिल्ली के फोर्टिज अस्पताल में ले जाया गया। लगभग 3 माह तक अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच जूझने के बाद आखिरकार कीट साक्षरता के अग्रदूत डा. सुरेंद्र दलाल दुनिया से विदा हो गए। अपना सबकुछ दाव पर लगाकर किसानों को जगाने वाला किसानों का यह मसीहा हमेशा-हमेशा के लिए सौ गया। 18 मई 2013 को डा. सुरेंद्र दलाल ने हिसार के जिंल अस्पताल में आखिरी सांस ली। डा. दलाल को बचाने के लिए 3 माह तक परिवार के सदस्यों द्वारा की गई अथक मेहनत, बड़े-बड़े डाक्टरों की दवाएं तथा देशभर से डा. दलाल के शुभचिंतकों की दुवाएं भी बेअसर हो गई। 19 मई 2013 को उनके पैतृक गांव नंदगढ़ में हजारों लोगों ने नम आंखों के साथ उन्हें अंतिम विदाई दी। उनकी अंतिम यात्रा के दौरान पूरा नंदगढ़ गांव अपने इस डाक्टर के लिए फफक-फफक कर रो रहा था। चारों तरफ से उमड़ रहे आंसुओं के सैलाब के कारण गांव का माहौल पूरी तरह से गमगीन था और हर चेहरे पर इस महान विभूति को खो देने का दर्द साफ झलक रहा था। डा. दलाल के चले जाने से अकेले हरियाणा प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश को बड़ी क्षति हुई है। यह क्षति कभी पूरी नहीं हो सकती। आज भले ही डा. दलाल हमारे बीच प्रत्यक्ष रूप से मौजूद नहीं हों लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से वे हमारे बीच हर वक्त मौजूद रहेंगे। उनके अनुभव, उनका कीट ज्ञान का संदेश, उनके विचार, उनकी जीवनशैली, उनका स्पष्टवादी व्यवहार, समाज के प्रति उनका समर्पण हमेशा हमें अपने बीच उनका एहसास करवाता रहेगा। उनके द्वारा दिया गया एक-एक संदेश हमेशा हमारे कानों में गुंजता रहेगा। वो सदा-सदा के लिए हमारे दिलों में बस गए हैं। दुनिया की कोई भी ताकत, कोई भी लालसा, उन्हें हमारे दिलो-दिमाक से नहीं निकाल पाएगी। उनकी इस मुहिम को आगे बढ़ाना ही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
जय जवान जय किसान जय कीट ज्ञान
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